यह स्त्रीजीवन की विडम्बना कहिए या फिर उसकी नियति कि आर्थिक रूप से सशक्त और सामाजिक रूप से प्रतिष्ठित होने के बावजूद भी वह अपनी शर्तों पर या यों कहें कि साझा शर्तों पर समाज में जीवन निर्वाह नहीं कर सकती | कभी उसे संतान के नाम पर कभी परिवार के नाम पर, कभी प्रेम के नाम पर अपनी आकांक्षाओं का गला घोट, खुद को साबित करना पड़ता रहा है| प्रश्न यह है कि आखिर कब तक एक स्त्री इन सब का बोझ ढ़ोती रहेगी, जिसे उसके अस्तित्व के साथ ही चस्पा कर दिया गया है और आखिर स्त्री ही क्यों? इन्हीं संवेदनाओं और प्रश्नों के मध्य एक सफल, विचारों से उन्नत, शिक्षित एवं आर्थिक रूप से स्वावलंबी स्त्री के व्यक्तिगत जीवन की हताशा और वही पुरानी पुरुषवादी सत्ता के समक्ष दो-चार करती स्त्री की कथा है ‘एक कहानी यह भी’।
‘एक कहानी यह भी’ मन्नू भंडारी की लेखकीय जीवन की कहानी है। इसमें उनके व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन के उन आयामों, परिस्थितियों और पहलूओं का विवरण है, जिसने उनकी रचना-यात्रा में निर्णायक भूमिका निभाई। मन्नू भंडारी के ही शब्दों में “अपनी कहानी लिखते समय सबसे पहले तो मुझे अपनी कल्पना के पर ही कतर कर एक ओर सरका देने पड़े, क्योंकि यहाँ तो निमित्त भी मैं ही थी और लक्ष्य भी मैं ही-यह शुद्ध मेरी ही कहानी है और इसे मेरा ही रहना था, इसलिए न कुछ बदलने- बढ़ाने की आवश्यकता थी, न काटने छाँटने की यहाँ मुझे केवल उन्हीं स्थितियों का ब्योरा प्रस्तुत करना था, वो भी जस-का-तस जिनसे मैं गुजरी---- दूसरे शब्दों में कहूँ तो जो कुछ मैंने देखा, जाना, अनुभव किया, शब्दशः उसी का लेखा -जोखा है यह कहानी”1
एक ख्यात लेखक की जीवन-संगिनी होने का रोमांच और एक जिद्दी पति की पत्री होने की बाधाएँ, एक तरफ अपनी लेखकीय जरूरतें और दूसरी तरफ एक घर को संभालने का बोझिल- दायित्व, एक धुर आम आदमी की तरह जीने की चाह और महान उपलब्धियों के लिए ललकता, आस-पास का साहित्यिक वातावरण ऐसे कई-कई विरोधाभासों के बीच से मनु जी लगातार गुजरती रही।”2 इसपर भी राजेन्द्र यादव जैसे प्रसिद्ध एवं सिद्धस्त साहित्यकार की पत्नी होना उनके लिए तकलीफदेह ही रहा क्योंकि जितनी उंगलियाँ राजेन्द्र की तरफ उठीं उससे कम इनकी तरफ भी नहीं अपने व्यक्तिगत जीवन से सबंधित प्रश्नों और आक्षेपों का सामना उन्हें समय-समय पर करना पड़ा और कहीं न कहीं उन आक्षेपों का प्रति उत्तर भी हमें उनकी इस रचना में मिल जाता है।
भारतीय पितृसत्तात्मक समाज में वर्ष 1931 में जन्मी मन्नू के पारिवारिक वातावरण का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। इनका जन्म और पालन-पोषण एक ऐसे पितृसत्तात्मक समाज में हुआ जो स्त्री को स्त्री होने का एहसास कराता रहता है। बचपन से ही सांवले रंग के कारण मन्नू कुंठित रहीं। आत्मकुंठा के विषय में वह लिखती हैं कि “मैं काली हूँ, बचपन में दुबली और मरियल भी थी।”3 पिता का बात-बात पर अपने अन्य संतानों से मन्नू की तुलना ने उनमें एक प्रकार की हीन-ग्रंथि का विकास कर दिया था। पढ़ाई-लिखाई ने उन्हें एक स्वतंत्र पहचान दिलाई और जब इस शिक्षा के कारण कुछ विश्वास जगा तो उनका पिता के विरुद्ध यह सोच कर प्रेम विवाह करना कि ”एक ही रूचि, एक ही पेशा कितना सुगम रहेगा जीवन मुझे अपने लिखने के लिए तो जैसे राजमार्ग मिल जाएगा।“4 और ऊपर से राजेन्द्र यादव का मन्नू भंडारी का हाथ पकड़कर उनकी बड़ी बहन को यह कहना कि “सुशीला जी, आप तो जानती ही हैं कि रस्म-रिवाज में न तो मेरा कोई खास विश्वास है न दिलचस्पी---- बट वी आर मैरिड”5 मन्नू भंडारी का अपने लेखकीय -भविष्य के संरक्षण के निमित्त पिता के विरुद्ध उठाया गया यह पहला आत्म-निर्णय था। परंतु साथ ही युवा राजेन्द्र के क्रांतिकारी विचारों से प्रभावित मन्नू भंडारी के मन में एक आकर्षण भी था। मन्नू के हौसले को मानो जैसे पंख मिल गया हो।
बहरहाल, शादी तो हो गई, परंतु शादी के समय ही राजेन्द्र ने लेखकीय अनिवार्यता के नाम पर समानांतर जीवन का आधुनिकतम पैटर्न थमा दिया। उनके अनुसार “देखो छत जरूर हमारी एक होगी, लेकिन जिंदगियाँ अपनी-अपनी होंगी- बिना एक-दूसरे कीजिन्दगी में हस्तक्षेप किए, बिल्कुल स्वतन्त्र, मुत्त और अलग”6
लिखने की स्वतंत्रता की आकांक्षा रखने वाली स्त्री के लिए तो यह स्थिति सहज हो सकती है परंतु एक पत्नी के लिए यह वज्रपात से कम नहीं था मन्नू भंडारी के लिए, जिसने इस तरह के पैटर्न की कल्पना भी न की थी और जिसने एक लेखकीय -जीवन के साथ-साथ सफल दाम्पत्य जीवन यापन के सपने संजों रखे थे, उसकी विवाहोपरांत एक दूसरे में समाहित हो जाने की आकांक्षा चूरचूर हो गई। उन्हें लगा “सर पर छत का आश्वासन देकर जैसे पैर के नीचे की जमीन ही खींच ली हो।”7 इस सामानांतर जिंदगी की अवधारणा के पीछे का सूत्र क्या था? स्वाभाविक है कि समानांतर जीवन में जो स्वतंत्रता राजेन्द्र को मिलनी चाहिए थी वहीं मन्नू को भी। इसी प्रकार बाधाएं, पारिवारिक जिम्मेदारी, आर्थिक-निर्वाह और सामाजिक दायित्व भी सामानांतर होने चाहिए थे। विवाह दोनों ने किया था और दायित्व दोनों के समान होने चाहिए थे परंतु घर की जिम्मेदारी और आर्थिक समस्याएँ सारी मन्नू की जिम्मे आ गई। यहाँ राजेन्द्र द्वारा सामानांतर जीवन का प्रयोगात्मक वैचारिकी तो दिखाई देती है परंतु इसी क्रम में घर के प्रति साझा दायित्व नगण्य है। विचारों की आधुनिकता का व्यवहारिकता में रूपांतरण शायद राजेन्द्र नहीं कर पाए थे। बाद के वर्षों में अपने आत्मावलोकन के क्रम में राजेन्द्र भी अपनी मानसिकता से दो-चार होते हैं कि क्या “यह अधूरे होने की हीनता-ग्रंथि से उत्पन्न दमित सेक्स की विकृत अभिव्यक्ति है जो बार-बार दूसरे से अपनी पूर्णता का आश्वासन चाहती है? या यह मेरी निजी कुंठा है या प्रागैतिहासिक आदिम पुरुष वृत्ति, जहाँ वह अपने कक्षों में शत्रुओं और शिकारों के सर सजाकर विजय के गर्व को बार-बार जीवित रखता है या वह सामंत जिसे अपने हरम में अनगिनत भोग सामग्री चाहिए”8
राजेन्द्र का स्वयं को न समझ पाना और स्त्रियों के प्रति भावनात्मक उदासीनता का पता इस प्रसंग से भी चलता है, जब नवविवाहिता स्त्री के प्रति यौनाकर्षण का प्रभाव भी उस शुष्क हृदयी राजेन्द्र पर नहीं पड़ता। शादी के महज महीने भर बाद मन्नू भंडारी के तालू में घाव हो जाने पर भी उसकी खास परवाह न करने वाले राजेन्द्र की उदासीनता दिनों दिन बढ़ती ही चली गई जिसकी भरपाई बेटी की पैदाइश भी नहीं कर पाई। सभी गर्भवतियों को पुरुष-सहयोग की अभिलाषा रहती है परंतु राजेन्द्र अपनी पुत्री के जन्म के बाद भी मन्नू से आकर नहीं मिलते। मन्नू लिखती हैं “मेंरा बड़ा मन करता था कि कभी तो राजेन्द्र मेरे पास अकेले में आकर बैठे- बच्ची को देखें, पर नहीं, ये तो मिलने के निर्धारित समय पर भीड़ के साथ आते थे और भीड़ के साथ लौट जाते थे।”9 इन परिस्थितियों में एक स्त्री का कातर होना, दुखी होना स्वाभाविक है। ऐसे में अगर मन्नू की जुबान पर छुरी-कांटे उग आते थे तो उसमें कुछ गलत नहीं जान पड़ता। ऐसा नहीं है कि दोनों में कभी सहयोग नहीं रहा परंतु वह महज लेखन क्षेत्र से ही जुड़ा हुआ था। इसका एक उदाहरण राजेन्द्र और मन्नू के संयुक्त लेखन के रूप में “एक इंच मुस्कान” का सामने आना था। जहाँ पहला अध्याय राजेन्द्र ने लिखा वहीं दूसरा अध्याय मन्नू जी के द्वारा लिखा गया। प्रथम अध्याय के प्रति पाठकों की प्रतिक्रिया मिली-जुली रही जबकि दूसरा अध्याय तब खूब चर्चित हुआ। संपादक के द्वारा प्रथम अध्याय के लिए दिखाई गई चिंता और दूसरे अध्याय के प्रति प्रशंसा राजेन्द्र यादव को अखरने लगी। इसका पता राजेन्द्र के इस कथन से चलता है “देखो देवड़ा एक बात अच्छी तरह समझ लो कि मेरे लेखन में गंभीरता है, गहराई है, चिंतन है-तुम क्या सोचते हो।”10 बात बीच में ही काटकर देवड़ा कहते हैं “देखिये राजेन्द्र जी संपादक हूँ और मेरा एक अनुरोध है आपसे कि आपका यह चिंतन पाठकों की चिंता न बन जाए।”11 यहाँ पति-पत्नी रूपी दो साहित्यकारों के बीच सफलता-असफलता से उपजा निराशाभाव और प्रतिद्वंद्विता स्पष्ट लक्षित होती है। इस प्रतिद्वंदिता का एक अन्य उदाहरण उषा प्रियंवदा के साथ जुड़ी एक घटना भी है। उषा प्रियंवदा के भारत आने से उन्हें लेकर साहित्यकारों में थोड़ी हलचल थी। राजेन्द्र मन्नू से यह बात छिपाते हैं और साहित्य अकादमी की मीटिंग का बहाना बनाकर उनसे अकेले मिल आते हैं। यह उनके लेखकीय-जगत की प्रतिद्वंदिता और अहंभाव को प्रदर्शित करता है।
मन्नू भंडारी की इस रचना में आत्म-असंतोष आद्यांत व्याप्त है। घर, परिवार, बेटी और नौकरी के समानान्तर लेखन कितना कठिन हो सकता है इसका पता मन्नू भंडारी के इस कथन से चलता है- “बेटी और घर(जिसकी पूरी-पूरी जिम्मेदारी मेरे ऊपर थी) के साथ नौकरी (जो अपनी जिम्मेदारियों को निभाने के लिए अनिवार्य थी) के बीच में से ही लिखने के लिए समय और सुविधा जुटानी पड़ती थी। और मैंने जो कुछ भी लिखा इन सबके बीच लिखा, इनकी कीमत पर कभी नहीं लिखा । लेकिन पहले हर स्तर पर संकट थे, कष्ट थे, समस्याएँ थी, नसों को चटका देने वाले आघात था पर उनके साथ लगातार लिखना भी था। जो भी जैसा भी। आज यह सारी समस्याएं, संकट समाप्तप्राय पर लिखना तो बिल्कुल ही समाप्त है तो क्या संघर्षपूर्ण और समस्याग्रस्त जीवन ही लिखने की अनिवार्य शर्त है?12
बच्ची के जन्म के कारण मन्नू भंडारी का दायित्व बढ़ा और घर गृहस्थी चलाने के लिए इन्हें रानी बिड़ला कॉलेज में पढ़ाना पड़ा। राजेन्द्र पुत्री के प्रति अपनी कोई जिम्मेदारी नहीं मानते थे और न ही उसके पालन-पोषण में कोई सहयोग ही करते थे क्योंकि वे इस काम को घटिया समझते थे और इनका सामंतवादी अहं उन्हें इसकी अनुमति नहीं देता था। इस बीच में फंसी बच्ची की शंटिंग कभी मन्नू भंडारी के यहाँ तो कभी उनकी बहन के यहाँ होती रही। एक माँ के लिए इससे बुरा और क्या हो सकता है कि उसकी संतान की उचित देखभाल न हो। घर चलाने के लिए पैसों की जरुरत भी थी और इस क्रम में मन्नू की नौकरी उनकी मजबूरी भी बन गई थी, राजेन्द्र यादव इन सब दायित्वों के प्रति उदासीन थे। वह नौकरी नहीं करना चाहते थे। मन्नू भंडारी के अनुसार इससे उनका पौरुषिक अहं आहत होता था। वह लिखती हैं “मुझे इनकी नौकरी न करने से न कोई शिकायत थी और न तकलीफ। तकलीफ थी तो केवल इस बात से कि जब आप नौकरी कर ही नहीं सकते-करना ही नहीं चाहते तो कम से कम मेरे नौकरी करने और घर चलाने पर इतनी-इतनी कुंठाएं पाल कर मेरा और अपना जीवन इतना असहज और तकलीफदेह मत बनाइये।”13
संघर्षपूर्ण, समस्याग्रस्त जीवन, हारी-बीमारी में अकेलापन, मानसिक तनाव मन्नू भंडारी के भीतर के रचनाकार को प्रतिकूल धाराओं में तैरने को प्रेरित करता रहा। यही जिजीविषा उनके भीतर के रचनाकार को विस्तृत भावभूमि देती है। इन तमाम व्यवधानों, अड़चनों के बावजूद भी वह लेखन का ‘स्पेस’ तलाशती थीं। उनके अनुसार वह ‘अपनी दुखती रगों और खाली कोनों को अपने लेखन से पूरा करने की कोशिश करती रहती थी। हर कहानी के छपने पर पाठकों की जैसे प्रशंसात्मक प्रतिक्रियाएं मिलती, उनकी हौसला अफजाई के लिए वहीं काफी था।’14
जब घर की परिस्थितियाँ सामान्य न हो, माहौल में भारीपन हो, तो एक व्यक्ति अपने जीवन का मर्म तो बाहर ढूंढ़ेगा ही तमाम परेशानियों और दायित्वों के बीच न लिख पाने की झुंझलाहट और अतृप्ति का बोझ जब उनके लेखन में परिणत होता, तो उनकी रचनाएँ और भी धार-धार बन पड़ती थी, पाठकीय लोकप्रियता इसका उदाहरण है। एक रचनाकार की तमाम विपरीत परिस्थितियों को झेलने के बावजूद भी अपनी रचनात्मकता को बनाये रखने की जद्दोजहद मन्नू भंडारी की सबसे बड़ी परेशानी थी। इतिहास साक्षी है कि पुरुष से स्पर्धा स्त्री के लिए हमेशा महँगी पड़ती है। यही स्पर्धा मन्नू भंडारी के जीवन की गति में अवरोध उत्पन्न करती हुआ भी दिखाई पड़ती है। मन्नू भंडारी लिखती हैं “बहुत सपने देखे थे इस जिन्दगी को लेकर बहुत उमंग भी थी-लेकिन एक ही पेशे के दो लोगों का साथ जहाँ कई सुविधाएं जुटाता है वही दिक्कतों का अंबार भी लगा देता है। कम से कम मेरा यहीं अनुभव रहा है।”15 यहाँ हमें मन्नू भंडारी के वक्तव्यों में अंतर्विरोध दिखाई पड़ता है। पूर्व में मन्नू जहाँ राजेन्द्र यादव से विवाह को अपने लेखकीय जीवन के राजमार्ग खुलने के अवसर के रूप में देखती हैं, वहीं दूसरी तरफ दाम्पत्य जीवन की वास्तविक सच्चाई उन्हें एक दूसरे यथार्थ से रूबरू कराती है। निसंदेह तब की मन्नू में लेखन के प्रति जोश और राजेन्द्र के प्रति आकर्षण था और वैवाहिक जीवन का स्वाद चख चुकी अनुभवी मन्नू में कमोबेश लेखन के भविष्य की चिंता तथा वैवाहिक असफलता से उपजी राजेन्द्र के प्रति नैराश्य भाव है। यहाँ यह भी ध्यान देना होगा कि मन्नू भंडारी राजेन्द्र यादव से लगभग हर मुद्दे पर समझौता करने को तैयार थी, परंतु लेखन के मुद्दे पर नहीं। जिस लेखन के लिए उन्होंने राजेन्द्र का चयन किया था वहीं राजेद्र अब इसमें बाधा बनकर उपस्थित होते हैं।
मन्नू भंडारी के माध्यम से कहे तो, जाहिर है कि इस युग में परिस्थितियां बदली हैं और इन परिस्थितियों में वे आर्थिक रूप से स्वतंत्र हुई हैं परन्तु इसके बदले हर परिस्थितियों में पुरुष स्त्री से अपने अहं को सहलाने की अपेक्षा करता है। इस स्थिति में अगर स्त्री अपने को दीन-हीन साबित करे, पति के विवाहेतर संबंधों को लेखकीय स्वतंत्रता के नाम पर उदार भाव से ग्रहण करे हो ही नहीं सकता है कि विवाह रूपी संस्था चल सके? मन्नू भंडारी ने एक सीमा तक यह प्रयास किया और इस कृति में जगह-जगह इसके उदाहरण भी दिए गए हैं। परंतु वैचारिक रूप से संपन्न स्त्री का अपने वैक्तिक जीवन से इतर वैवाहिक संस्था के प्रति यह घोर आसक्ति भी समझ से परे है। वास्तव में इसे स्त्री के अंतर्विरोध के रूप में देखा जा सकता है। इस विषय पर मन्नू भंडारी लिखती हैं कि, “अपने प्रति हजार धिक्कार उठाने के बावजूद मैं ऐसा कोई निर्णय नहीं ले पाई। क्या मेरी जिन रगों में एक समय लावा बहा करता था, अब पानी बहने लगा है? या कि दो वर्ष की मित्रता में मैं राजेन्द्र से इतने गहरे तक जुड़ गई थी कि उन्हें नकार देना मुझे अपने आप को नकार देने जैसा लगने लगा था- या कि पिताजी की इच्छा के विरुद्ध अपनी इच्छा से की हुई शादी को किसी कीमत पर असफल नहीं होने देना चाहती थी?”16 मन्नू भंडारी ने उन सभी प्रश्नों को यहाँ स्वयं खड़ा कर दिया है, जिसके आक्षेप उनपर लगते रहे हैं?
मन्नू भंडारी पर यह आक्षेप लगता है कि तमाम असहमतियों और आरोपों के बावजूद भी वह राजेन्द्र यादव के साथ क्यों रहीं। निर्मला जैन ने भी यह प्रश्व किया था कि “राजेन्द्र ने जो किया सो किया पर आप क्यों नहीं अलग हो गई? हो सकता है कि आप भी एक यशस्वी प्रतिभाशाली लेखक के मोह से मुक्त न हो पाई हों?”17 मन्नू भंडारी इन आक्षेपों के सबंध में लिखती हैं कि “यह मेरा मोह ही था। एक गहरा लगाव पर व्यक्ति राजेन्द्र के प्रति जिसमें उनका लेखक होना शुमार था पर यशस्वी होना कतई नहीं। उनका यश चाहे जितना फैला हो और जहाँ-तक फैला हो मैंने उस यश की सीधी चढ़कर न तो अब तक अपने लिए कुछ पाया है न चाहा है। इनके किसी भी संपर्क संबंध को अपने किसी लाभ या महत्वकांक्षा के लिए आजतक कभी भुनाया हो।”18
निर्मला जैन के प्रश्न और मन्नू भंडारी के उनर के उतरार्द्ध को छोड़ दें तब भी पूर्वार्द्ध महत्वपूर्ण बना रहता है। स्वयं मन्नू ने भी ऊपर अपने आत्मचिंतन के रूप में जो प्रश्न किये हैं उनका वास्तविक जवाब नहीं दे पाती। सम्पूर्ण रचना का निष्कर्ष यह है कि राजेन्द्र यादव मन्नू को वह सुख न दे पाए जो एक पत्नी की आकांक्षा होती है। यह सही भी है। परंतु मन्नू यहाँ स्वयं राजेन्द्र और प्रसिद्ध साहित्यकार राजेन्द्र को अलगाती हैं। उनके अनुसार राजेन्द्र से उन्हें स्नेह था। परंतु प्रश्न यह उठता है कि इस आत्मस्वीकृति(यह रचना) में राजेन्द्र और प्रसिद्ध रचनाकार राजेन्द्र में दोषी कौन ठहरता है? ‘एक कहानी यह भी’ में ऐसे कई स्थल आए हैं जब लेखन के स्तर पर दोनों में सहयोग, वैचारिक आदान-प्रदान और परस्पर हौसला अफजाई जरूर दिखाई पड़ती है। हाँ, राजेन्द्र में एक कॉम्पटीशन की भावना भी है, जो सहज स्वाभाविक है। अब ऐसे में पति का स्वरुप घेरे में आता है, जो मन्नू द्वारा अलगाए गए प्रसिद्ध रचनाकार से तो जरूर अलग है। वह पति जो कभी मन्नू को समझ नहीं पाया, विवाहेतर संबंधों में लिप्त रहा, पारिवारिक जिम्मेदारियों से भागता रहा, यहाँ तक की पिता के दायित्व को भी नहीं समझ पाया। ऐसे राजेन्द्र से प्रेम और आकर्षण की बात समझ नहीं आती। मन्नू भंडारी अपने इस आत्मकथात्मक-अंश में यह स्पष्ट नहीं कर पाती।
इस मध्य एक प्रश्न और उठता है। यह सत्य है कि रचनाकार के साथ-साथ मन्नू एक गृहणी भी थीं और उन्हें स्त्री होने के सारे सुख मिलने चाहिए थे और यह उनका अधिकार भी था। परंतु साथ साथ सजग, स्वावलंबी, बौद्धिक मन्नू जो स्त्री-मनोविज्ञान की समझ रखने वाली और अपने सशक्त स्त्री पात्रों के लिए जानी जाती थीं वह अपनी रचनाओं के कल्पनात्मक संसार में ही अपनी स्वतंत्रता क्यों ढूंढती रही? यह स्वाभाविक है कि उनपर ऐसे प्रश्न उठते रहेंगे। जिसका समाधान मात्र प्रेम की परिभाषा के आधार पर नहीं दिया जा सकता। प्रश्न यह भी है कि प्रेम भी किससे? उस राजेन्द्र से जिसका एक भी सकारात्मक अथवा यों कहे की आकर्षक गुण मन्नू भंडारी इस रचना में नहीं दिखा पाती हैं क्रांतिकारी विचारों के प्रति आकर्षित युवा मन्नू का यह देखकर भी कि राजेन्द्र अपने विचारों के प्रति व्यवाहारिक नहीं है, अन्य ऐसा कौन सा आकर्षण था जिसने उन्हें इतने वर्षों तक रोके रखा यह रचना इस संदर्भ में स्पष्ट नहीं है।
स्त्री-स्वातंत्र्य के विषय में निर्मला जैन लिखती हैं “आर्थिक आत्मनिर्भरता स्त्रियों की स्थिति नहीं सुधार सकती वरन मुक्ति का रास्ता आत्मनिर्णय के अधिकार के साहसपूर्ण उपयोग से ही मिलता है।”19 मन्नू भंडारी में इस आत्मनिर्णय की कमी अवश्य देखी जा सकती है, पिता के विरुद्ध जाकर विवाह करने सम्बन्धी आत्मनिर्णय का साहस दिखाने वाली मन्नू भंडारी का अपने दयनीय जीवन को लेकर अंतिम निर्णय की स्थिति का साहस न दिखा पाना, जरूर कचोटता है।
गरिमा श्रीवास्तव का यह कथन ठीक जान पड़ता है कि “मन्नू भंडारी एक ओर प्रगतिकामी शक्तियों के पक्ष में हैं, दूसरी ओर उनके भीतर पितृसत्तात्मक व्यवस्था में पली-बढ़ी संस्कारित स्त्री वैठी है, जिसका संसार पुरुष के अभाव की कल्पना से भी डरता था। कभी बेटी के लिए, कभी दुनिया क्या कहेगी और सबसे ज्यादा अपने लिए, जो पति की ज्यादतियों पर जितना चाहे रो गा। ले- न लिख पाने के कारणों में वह घरेलू व्यस्तताओं, स्वास्थ्य और पति की उपेक्षा प्रमुख मानती हैं जब कि मन्नू के आत्मोत्सर्ग के पीछे सामन्ती मूल्य संरचना से अनुकूलित स्त्री मानसिकता को देखा जाना चाहिए। स्त्री की भारतीय परंपरागत छवि सकारात्मक ही रही जिसे वह स्वयं भी भंग नहीं करना चाहती” यह अनुकूलन ही है कि वह जीवन के पैंतीस वर्ष कलपते हुए काट देती हैं लेकिन स्वयं को बंधन मुक्त करने का साहस नहीं कर पाती।”20
निष्कर्षतः आजीवन दुःख झेलती रही मन्नू भंडारी की यह आत्म-पीड़ा व्यथित कर जाती है। एक तो इस रूप में कि स्त्री आज भी इन दुखों को सहने के लिए अभिशप्त है और दूसरा इसलिए भी कि प्रबुद्ध मन्नू भी स्वयं उस सामन्तवादी पितृसत्तात्मक व्यवस्था से संस्कारित अपने व्यक्तित्त्व को तोड़ नहीं पाई। मन्नू की यह कहानी इस मायने में तो अवश्य ही महत्वपूर्ण है कि स्त्री चाहे कितनी भी शिक्षित हो, आर्थिक रूप से सुदृढ़ हो, विचारों से आधुनिक हो आत्मनिर्णय के साहसपूर्ण प्रयोग के बिना उसकी स्थिति नहीं बदल सकती। यह कदम स्वयं उसे ही उठाना होगा।
सन्दर्भ सूची
1- भंडारी, मन्नू, एक कहानी यह भी, राधाकृष्ण प्रकाशन, संस्करण-2009, पृष्ठ-8
2- वही, फ्रलैप से
3- वही, पृष्ठ-18
4- वही, पृष्ठ-56
5- वही, पृष्ठ-53
6- वही, पृष्ठ-56
7- वही, पृष्ठ-57
8- वही, पृष्ठ-254
9- वही, पृष्ठ-59
10- वही, पृष्ठ-64
11- वही
12- वही, पृष्ठ-13
13- वही, पृष्ठ-67
14- वही
15- वही, पृष्ठ-56
16- वही- पृष्ठ 221
17- वही
18- वही- पृष्ठ-222
19- पन्न- प्रदीप (डॉ-), अन्या तो ठीक लेकिन अनन्या क्यों, भाषा, संपादक, डॉ- शशि भारद्वाज(जुलाई-अगस्त 2008), पृष्ठ-204
20 श्रीवास्तव, गारिमा, प्रतिरोध की संस्कृतिः स्त्री आत्मकथाएँ, आलोचना पत्रिका, संपादक- अरुण कमल, (अक्टूबर-दिसम्बर-2009) पृष्ठ-101
-डॉ. समर विजय
सहायक प्राध्यापक(अतिथि)
जाकिर हुसैन महाविद्यालय,
दिल्ली विश्वविद्यालय