राजनीति जैसे महत्वपूर्ण सत्ता के क्षेत्र में पाँव रखने से एक स्त्री को घर बाहर की जिन कठोर विपरीत परिस्थितियों के विरुद्ध संघर्ष करना पड़ता है उसका बेहद रोचक और विश्वसनीय चित्रण मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यास ‘चाक’ में हुआ है|
‘चाक’ में दो स्त्रियाँ, प्रधानी के चुनाव में सक्रिय हैं, पहली शहरी, टूटी-फूटी अंग्रेजी बोलने वाली पूर्व प्रधान भवानी प्रसाद की बहू ‘सीमा’ तथा दूसरी, गजाधर की बहू ‘सारंग’| सीमा की भूमिका पंचायत के चुनाव में बहुत सीमित है| वह शहरी और शिक्षित होने, अपने संवादों में ‘प्लीज’, ‘बोर’, ‘इंसल्ट’ जैसे अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग करने के बावजूद एक डरी हुयी और परंपरागत रूढ़िवादी चरित्र है| भवानीदास उसका उपयोग गाँव की महिलाओं का वोट प्राप्त करने के लिए करते हैं| सारंग को भी राजनीति में प्रवेश से रोकने वाला व्यक्ति स्वयं उसका पति रंजीत है जो चाहता है कि सारंग घर के अन्दर ही रहे| यह बात रंजीत के बारे में सारंग की इस सोच से स्पष्ट हो जाता है – “लेकिन आसमान का चाँद तोड़ने की बातें करती जो उनके क्या किसी पुरुष के बस की बात नहीं| यह मूर्खता? रंजीत कहते हैं के औरतों जैसा आचरण करो| अपनी सीमाएं देखो गहने कपड़े मांगों| पीहर जाने के लिए लड़ो, रूठो, सच में तुम्हारी इस तरह की हर बात पर निछावर हो जाऊँगा| तुमको कंचन की तरह अपने घर की हदों में रखनेवाला में चौखट के बाहर का खतरनाक दायरा कैसे नापने दूं?”
लेकिन सारंग अन्दर ही अन्दर पंचायत का चुनाव लड़ने की इच्छा रखती है| सारंग के अन्दर एक विद्रोही आग है, जो गाँव को नाश करने पर तुले फत्ते सिंह, भवानी दास, ठान सिंह आदि को जलाकर नष्ट कर देना चाहती है| सारंग की इस भावना की पूरी जानकारी उसके देवर भंवर और मास्टर श्रीधर को है| भंवर कहते हैं “भाभी का बस चले तो जिंदा चबा जाएँ इन गाँवद्रोहियों को|”
इसलिए ससुर गजाधर सिंह, देवर भंवर सिंह और मास्टर श्रीधर मिलकर निर्णय लेते हैं कि सारंग को ही प्रधानी का चुनाव लड़ाया जाए, लेकिन जब सारंग को इस निर्णय की सूचना दी जाती है तो शुरू में झिझकती है| गाँव के पुरुष इसका विरोध भी करते हैं लेकिन वह राजनीति के बड़े मूल्यों से प्रेरित होकर चुनाव लड़ने का निश्चय करती है जबकि उसका पति रंजीत तथा गाँव के अन्य दबंग लोग जैसे प्रधान फत्ते सिंह, थान सिंह और कुंवर पाल उसका विरोध करते हैं| उसकी बहन रेशम की हत्या गाँव में की गयी| हत्यारे डोरियों के विरुद्ध न तो उसका पति पूरी तरह साथ देता है और न गाँव वाले| बल्कि सारे पुरुष रेशम की हत्या को जायज़ ठहराते हैं क्योंकि उसने विधवा होकर भी प्रेम करने का अभूतपूर्व साहस जो किया था| रेशम के अलावा गुलकंदी, उसके दलित प्रेमी विसुन देवा तथा गुलकंदी की माँ को होली के दिन जलाकर मार दिया जाता है| गुलकंदी और उसके परिवार कि हत्या के पीछे सारा पुरुष समाज था जिसने पुलिस में जाकर गवाही देने का मन नहीं बनाया क्योंकि रेशम कि तरह ही गुलकन्दी का प्रेम करना पुरुष समाज के मुंह पर तमाचा था|
पढ़ी लिखी सारंग एक मध्यवर्गीय उहापोह में पड़ जाती है| उसके चुनाव लड़ने की सबसे बड़ी चिंता उसका पति रंजीत है| रंजीत की हैसियत का क्या होगा? फिर रंजीत ने भी तो चुनाव लड़ने का फैसला किया है| इससे क्या पति पत्नी के रिश्तों में हमेशा के लिए खटास नहीं पैदा हो जाएगी या रंजीत तो उसे छोड़ भी सकते हैं? सारंग की आतंरिक उलझनों का शमन करने में उसके ससुर गजाधर, भंवर सिंह, और शिक्षक श्रीधर का बहुत योगदान होता है| श्रीधर की प्रेरणा मुख्य है| इसी शिक्षक के साथ सारंग प्रेम करती है लेकिन न परिवार को छोडती है ना पति को| श्रीधर की प्रेरणा में एक उभरती हुयी नारीशक्ति संकेत मिलता है, जो सदियों से मर्यादा की छोटी बड़ी बेड़ियों में जकड़ी हुयी है| इस बंधन से मुक्ति के पीछे लेखिका की नयी दृष्टि भी काम करती दिखाई पड़ती है, किसी परंपरागत पुरुष वर्चस्व के विपरीत स्त्री का राजनीति में सक्रिय हस्तक्षेप, समाज और राष्ट्र के लिए ज्यादा लाभदायक और रचनात्मक होगा| पुरुष राजनीति में जहाँ ठेठ अवसरवाद, हिंसा, लूट-खसोट की प्रबलता रहती है वहीँ पर स्त्री राजनीति को ज्यादा संवेदनशील, मानवीय, और रचनात्मक बना सकती है, यह उसके व्यक्तित्व के अनुकूल होता है|
सारंग के व्यक्तित्व में छिपी इसी विराट प्रबलता को श्रीधर मास्टर प्रबोधते नज़र आते हैं- “ यह बताओ जब घर परिवार में औरत का दखल हो सकता है तो राज-काज में क्यों नहीं? तुम पढ़ी लिखी हो, खूब जानती हो, हमारे संविधान में औरत को बराबरी का दर्ज़ा मिला है| तुम कब तक औरत के पत्नी होने की दुहाई देती रहोगी? में निमित्त बनूँगा तुम्हारे चुनाव में खड़े होने का| भले कितना ही रोको निमित्त बनूँगा उसी तरह का जैसे कुम्हार घड़ा बनाने का होता है| तुम्हें प्रधान बनना होगा हर हालत में... सतियों के सिंहासन पर देवी कि तरह पधरायी जा सकती हो लेकिन पुरुषों कि बराबरी में जगह पाना असंभव है| ‘बराबरी’ शब्द खतरों के ईटों से बना है, इसे हासिल करना मेरे ख्याल में साहस ही दुनिया की अमूल्य चीज़ है| श्रीधर सारंग को याद दिलाता है कि रेशम, गुलकंदी, शकुंतला और शारदा की हत्या का बदला लेने के लिए चिंता करती है उसके लिए उसे घर कि दीवारों को लांघ कर अन्दर की उलझन से मुक्त होकर सत्ता के मैदान में आना होगा| श्रीधर सत्ता में स्त्री की बराबरी की वकालत ही नहीं करते बल्कि एक बहुत बड़ी बात सारंग को कह जाते हैं जिसका बहुत बड़ा प्रभाव सारंग पर पड़ता है- “सुनो में चलता हूँ, इन् बातों का ध्यान रखना- गरीब को धन के लिए, निर्बल को बल के लिए और अज्ञानी को ज्ञान के लिए संघर्ष करना पड़ता है| यह शास्त्रों में लिखी प्रमाणित बात है| यदि ऐसा नहीं होता तो इंसान और पशु में फर्क नहीं, किसी शिकंजे से आज़ाद होना गुनाह नहीं सारंग| इसलिए तुममे जो योग्यता है, उसको बेकार न जाने दो| तुम रंजीत से ज्यादा कुशल हो, ज्यादा समझदार हो, ज्यादा व्यावहारिक हो और ज्यादा दृढ़ हो| इसलिए जिस काम में रंजीत असफल हो रहे हैं तुम करने खड़ी हो जाओ|’’
जब तमाम मानसिक उतार चढ़ाव के बाद सारंग अपना नामांकन प्रधान पद के लिए कर देती है तो पति रंजीत हिंसक हो उठता है– “रंजीत को जो क्रोध प्रधान पर आया था, वह भी उन्होंने की गुस्ताखी में शामिल कर लिया| दोगुनी घृणा से किचकिचा उठे, गद्दार पत्नी... बदकार औरत... छिनाल साली? बन्दूक पर पाँचों उंगलियाँ कस गयीं| दूसरा हाथ छर्रों कि असलियत जांचने लगा और लम्बे लम्बे डग भरते हुए बरामदे में जा पंहुचा, सारंग का कन्धा पकड़ लिया|’’व्यक्तिगत स्तर पर उत्पीड़न के अलावा रंजीत उसे मानसिक रूप से परेशान करने के लिए चन्दन को दूर कर देते हैं| वह सारंग को मारता पीटता है| फिर भी सारंग अपने निर्णय से विचलित नहीं होती| पन्ना सिंह, फत्ते सिंह, पैसे देकर सारंग के ऊपर चुनाव से नाम वापस लेने का दबाव डालते हैं| इसके लिए वह सारंग के पति रंजीत को बिचौलिए के रूप में चुनते हैं और रंजीत सारंग को नाम वापस लेने के लिए भी कहता है| सारंग कहती है रंजीत लाख दर्जे हम, विरोधी ही सही ,फिर भी तुम पर एक भरोसा था, और तुम कुंवरपाल की जाति में जाकर बैठ गए| पिछली बार उसने भी बीस हजार रूपये में अपना ईमान...सारंग की दृढ़ता देखकर रंजीत उसे चिढ़ाते हुए पीत्तेपीत कहते हैं कि क्या तुम रामराज्य कायम करोगी| हंसी आ गयी सारंग को रामराज्य लेकर हम क्या करेंगे?सीता की कथा सुनी तो है| धरती में ही समाना है तो यह जद्दोजहद??अपने चलते कोई अन्याय न हो| रामराज्य में निहित घोर लिंगभेद के उत्पीड़न को खोलकर सारंग,एक नयी नारी की छवि को गढ़ती है,जो पुराने आदर्शों के प्रति लगाव के नाम पर अपनी पहचान को छोड़ने या त्यागने के लिए तैयार नहीं है|
अंततः रंजीत भी सारंग के निर्णय के प्रति सहमत होते दिखाए गए हैं| यह लेखिका के रचनात्मक संतुलन का प्रतिफल हो सकता है|जब एक स्त्री राजनीतिक सत्ता में अपनी भागीदारी के लिए कदम बढाती है ,उसके निर्णय पर कई आरोप लगाये जाते हैं| सबसे बड़ा आरोप यही होता है कि इससे घर- परिवार की एकता बिखर जाएगी| इसमें कोई शक नहीं घर परिवार की शांति भंग हो सकती है, तनाव बढ़ सकते हैं लेकिन इसका कारण स्त्री का निर्णय नहीं ,पुरुष का अहम् होता है| ‘चाक’ में इस तनाव को आसानी से परिलक्षित किया जा सकता है| पारिवारिक सामाजिक तनाव की स्वाभाविकता के बावजूद रचनादृष्टि की सदाशयता के चलते मैत्रेयी पुष्पा एक तरह का रचनात्मक संतुलन बनाने में सफलता पाई है| निःसंदेह स्त्री की त्रासदी का जिम्मेदार पुरुष समाज है, लेकिन संवेदनशील और विवेकवान पुरुष स्त्री की मुक्ति का मार्ग भी प्रशस्त कर सकता है|
मैत्रेयी कि चिंता में स्त्री को समानता से पहले मनुष्यता का अधिकार मिलना चाहिए| जिसमें सबसे पहले आता है-स्त्री के स्वतंत्र निर्णय का अधिकार| इसी अधिकार से अन्य अधिकारों की राहें खुलती हैं जिसके लिए मैत्रेयी की स्त्री संघर्षरत है भले डरते-डरते ही सही ,लेकिन सारंग नैनी अपने व्यक्तित्व में निर्णय का अधिकार सुरक्षित रखती है| यही निर्णय का अधिकार अंततः पूरे गाँव –समाज की स्त्रियों को जोड़कर स्त्री की चट्टानी शक्ति बन जाती है,जब लौन्गसिरी बीबी से लेकर प्रधानिन,बैकुंठी एवं अन्य लड़कियाँ,बहुएँ, मनोहरा की बहु सब की सब सारंग के प्रधानी के जुलूस में शामिल होती हैं |
उपन्यास ‘चाक’ शिक्षा और संस्कारो के नए अर्थ खोलता है ,न सिर्फ रुढ़ियों को तोड़ता है बल्कि विकल्प प्रस्तुत करता है जहाँ पुरुषों की स्वार्थ सत्ता का प्रतिपक्ष प्रस्तुत करती स्त्री अपनी शक्ति के साथ सामने आती है| समाज को सही दिशा मिलने लगती है,जब पुरुष भी सकारात्मक सोच के साथ ज्ञान को सार्थक बनाता है|’चाक’ में गढ़े गए पुरुष श्रीधर, भंवर और गजाधर सिंह ऎसी सकारात्मक छवि के साथ सामने आते हैं| स्त्री के साथ पुरुष का समाहार करवाकर यह उपन्यास समाज के सामने नए मूल्य प्रस्तुत करता है|
चाक में केवल सारंग ही नहीं ,सभी स्त्री पात्र चेतना संपन्न दिखाई देती हैं|रेशम,कलावती चाची,लौन्गसिरी बीबी,गुलकंदी,हरिप्यारी नाइन,बड़ी बहु, प्रधानिन, बैकुण्ठी सब की सब| कुछ अपनीं अपनी परिस्थितियों के अनुसार मौके पर ही चेतस दिखाई देती हैं तो कुछ चुनाव के साथ सारंग की शक्ति में अपना हाथ आगे बढ़ाकर उसे मजबूत बनाती है| इस तरह स्त्री की चेतना सामूहिक शक्ति बनकर सामने आती है|
सन्दर्भ ग्रन्थ
‘’चाक’’
मैत्रेयी पुष्पा, राजकमल पेपरबैक्स, तीसरा संस्करण|
- खुशबू
सहायक प्रोफ़ेसर, गंगा देवी महिला महाविद्यालय
पाटलिपुत्र विश्वविद्यालय,
पटना, बिहार