मानव जीवन एवं पर्यावरण एक दूसरे के पर्याय हैं। जहां मानव का अस्तित्व पर्यावरण से है वहीं मानव द्वारा निरंतर किए जा रहे पर्यावरण के विनाश से हमें भविष्य की चिंता सताने लगी है। हमारे प्राचीन वेदो ऋग्वेद सामवेद यजुर्वेद एवं अथर्ववेद में पर्यावरण के महत्व को दर्शाया गया है।
हिंदी साहित्य में आदिकाल से लेकर आधुनिक काल तक प्रकृति को हमेशा विशिष्ट स्थान मिला है। पर्यावरण चेतना की समृद्ध परंपरा हमारे साहित्य में रही है ,वह आज भी उतना ही प्रासंगिक है
प्रसिद्ध कवि रूपेश कन्नौजिया की पंक्तियां हैं-
प्रकृति तो हमेशा ही मेरी सुंदर मां जैसी है,
गुलाबी सुबह से माथा चूम कर हंसते हुए उठाती है,
गर्म दोपहर में ऊर्जा भर के दिन खुशहाल बनाती है,
रात की चादर में सितारे जड़कर मीठी नींद सुलाती है,
प्रकृति तो हमेशा ही मेरी सुंदर मां जैसी है,
आदिकालीन कवि विद्यापति की रचित पदावली प्रकृति वर्णन की दृष्टि से अद्वितीय है-
मौली रसाल मुकुल भेल ताब
समुखहिं कोकिल पंचम गाय।
भक्तिकालीन कवियों में कबीर सूर तुलसी जायसी की रचनाओं में प्रकृति का कई स्थलों पर रहस्यात्मक- वर्णन हुआ है। तुलसी ने रामचरितमानस में सीता और लक्ष्मण को वृक्षारोपण करते हुए दिखाया है -
तुलसी तरुवर विविध सुहाए
कहुं कहुं सिया कहुं लखन लगाएं।
रीतिकालीन कवियों में बिहारी पद्माकर देव सेनापति ने प्रकृति में सौंदर्य को देखा परखा है बिहारी का एक दोहा देखने योग्य है-
चुवत स्वेद मकरंद कन
तरु तरु तरु विरमाय
आवत दक्षिण देश ते
थक्यों बटोही बाय।
आधुनिक काल में प्रकृति के सौंदर्य का उपादान क्रूर दृष्टि का शिकार होना प्रारंभ हो जाता है मैथिलीशरण गुप्त के साकेत में चंद्र ज्योत्सना में रात्रि कालीन बेला की प्राकृतिक छटा का मुग्ध कारीवर्णन है-
चारु चंद्र की चंचल किरणें
खेल रही है जल थल में
स्वच्छ चांदनी बिछी हुई है
अवनि और अंबर तल में
छायावादी काव्य में प्रकृति का सूक्ष्म और उत्कट रूप दिखाई देता है। प्रसाद पंत निराला महादेवी वर्मा में पर्यावरण चेतना यत्र तत्र पाई जाती है। पंत को तो प्रकृति का सुकुमार कवि भी कहा गया है पंत की यह पंक्तियां देखने योग्य है-
छोड़ दुरुमों की मृदु छाया
तोड़ प्रकृति से भी माया
बाले तेरे बाल जाल में
कैसे उलझा दूं लोचन
प्रसाद की कामायनी का पहला ही पद पर्यावरण का उत्कृष्ट उदाहरण है-
हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर
एकबैठ शिला की शीतल छांह
एक पुरुष भीगे नयनों से
देख रहा था प्रलय प्रवाह
प्रसाद ने प्रकृति को ही सौंदर्य और सौंदर्य को ही प्रकृति माना है।
काशीनाथ सिंह की कहानी जंगल जातकम पर्यावरण को बचाने को लेकर अच्छी कोशिश कही जा सकती है। जिस परिवेश में बैठकर लेखक ने कहानी की रचना की है वह चिपको आंदोलन के आसपास का समय है। लेखक ने समय की मांग को संवेदनात्मक धरातल पर प्रस्तुत किया है जंगल का मानवीकरण करते हुए लेखक ने बरगद बांस पीपल सभी वृक्षों की भूमिका को सही दिशा दी है
डॉ. प्रेम कुमारी सिंह, दिल्ली विश्वविद्यालय के भारती महाविद्यालय में हिंदी विभाग में सहायक प्राध्यापक के रूप में कार्यरत हैं | साहित्य की कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में इनके लेख प्रकाशित होते रहें हैं | सहित्य में इनकी रूचि उपन्यास और कहानी विधा में है, जिससे संबंधित इनकी दो पुस्तकें भी प्रकाशित हुई हैं|
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