परिगणित जीवन बनाम ‘स्ट्राइक’

आधुनिकता के बोध को हमारे देश और समाज ने कब से आत्मसात करना शुरू किया होगा, इसकी एक स्पष्ट रेखा नहीं खीची जा सकती | परन्तु जीवन के विविध पहलुओं के बदलते परिदृश्यों से इसका अहसास अवश्य हो जाता है | नए-नए विमर्शों का जन्म लेना भी आधुनिकता की पहचान है | आज़ादी मिलने से करीब 2-3 दशक पूर्व इसकी रूपरेखा विविध मानवीय संबंधों के बदले स्वरूप से ज़ाहिर होने लगती है जब विशेष रूप से मध्य वर्ग पनपने लगता है | यह मध्य-वर्ग मूल्यों-आदर्शों और नैतिकताओं की जद्दोजहद के चक्रव्यूह में उलझा हुआ अपनी एक विशेष उपस्थिति दर्ज करता है |

इसी दौर में हिन्दी साहित्यकारों ने भी विशेष रूप से अपनी लेखनी इसी मध्य वर्ग के जीवन को केंद्र में रख कर चलाई | हिंदी की नयी कविता तो पूरी तरह से मध्य वर्गीय कवि के जीवन का प्रतिबिम्बन करती है | गद्य के क्षेत्र में भी शिल्प की दृष्टि से जहाँ नई-नई गद्य विधाओं का स्वरुप निर्धारण हो रहा था, वही संवेदना के विशिष्ट आयाम भी उद्घघाटित किये जा रहे थे | इसी दिशा में भुवनेश्वर प्रसाद की ‘स्ट्राइक’ एकांकी अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है | भुवनेश्वर प्रसाद अपने कथानक का चयन युग सन्दर्भ में भोगे गए सत्य से ही करते हैं | उनका यह सत्य उन घटनाओं से जुड़ा होता है जो समस्या प्रधान होती हैं | इनकी एकांकियों की विशेषता प्रतीकात्मकता है | एक जागरूक रचनाकार होने के नाते प्रेम, विवाह, परिवार आदि पर आधारित समाज की समस्याओं को तीखेपन के साथ प्रस्तुत करते हैं | इन समस्याओं का कहीं पर भी समाधान देते हुए नही दिखाई देते क्योंकि इनका मानना है कि एक समाधान कई और समस्याओं का सृजन करता है | रचना का अंत, अंतहीन रखना भी आधुनिकता-बोध की विशेषता है |

परिगणित जीवन बनाम ‘स्ट्राइक’

उपर से देखने पर ‘स्ट्राइक’ एकांकी मध्यवर्गीय दाम्पत्य जीवन के पेचोखम को प्रदर्शित करती हुई आभासित होती है परन्तु गहरे में इसके कई विशेष बिंदु भी हैं, जिन्हें मनोवैज्ञानिक धरातल पर समझने की आवश्यकता है | अब तक प्रस्तुत समीक्षाओं में आधुनिक पुरुष-स्त्री की ऐसी दाम्पत्य जीवन से सम्बंधित है जो उनके सम्बन्धों को एक रोबोटिक स्वरुप प्रदान किये हुए है | परन्तु इस स्वरुप के निर्माण के कारणों को समझे बिना शायद इस एकांकी को पूरी तरह से नहीं समझा जा सकता है | जैसा कि प्रसिद्ध ग्रीक दार्शनिक हेराक्लिटस         ने भी कहा है, ‘You could not step twice into the same rivers, for other waters are ever flowing on to you .’’ जीवन की खूबसूरती उसके साथ बहने में है | परेशानी तब आती है जब बहने वाला तो धारा के प्रवाह में बहते हुए उसकी तासीर से जुदा  हो जाता है | नए-नए तौर तरीको को अपनाना गलत नहीं परन्तु उसकी उचित समीक्षा आवश्यक है | जो जैसा है उसे वैसा ही सिर्फ इसलिए अपना लेना कि किसी और को उससे बेहतर लाभ मिल रहे हैं, एकांगी दृष्टिकोण का सूचक है | एफ़िशिएंसी की गलत परिभाषाये गढ़ लेने से जीवन का रस सूखने लगता है,”दुनिया का भविष्य एफिशेंसी के हाथ में है-दुनिया की सारी दौलत, सारा आराम, सारा जस उसका है उसे मशीन की तरह सरंजाम दे रहा है |”(हिन्दी नाटक और एकांकी,पृ.166) एकांकी के मुख्य पात्र पुरुष के संवादों से स्थान-स्थान पर यह सपष्ट होता है कि वह एक ऐसा मस्तिष्क है जो आधुनिक समझ को तवज्जो देता है पर उसके सार को जाने बिना | वह महान लेखकों, दार्शनिको और व्यवसायियों के उदाहरण बात-बात पर देते हुए सिर्फ अपना किताबी ज्ञान बघारता है | उसे लगता है कि वह उन विचारों का अनुसरण करते हुए सफल जीवन व्यतीत कर रहा है |

अपने व्यवसाय के लिए भी उसकी सोच असंवेदनशील तो है ही पर वह उसे अपने केलकुलेटिव दिमाग पर गर्वोंमादित महसूस करते हुए उसे भी सही साबित करते हुआ दिखाई देता है | राजनीति और व्यवस्था के बदलते हुए समीकरण कैसे जीवन को समाप्त कर रहे हैं, उसकी मशीनी सोच में इन संवेदनाओं की लगातार अनुपस्थिति दिखाई देती है | वह ऎसी परिस्थितियों में निर्मित मानसिकता का प्रतीक है जो जीवन के संसाधन जुटाते जुटाते जीवन से ही दूर हो गयी है | मशीन(या सुसंचालित और सुनिश्चित दृष्टि) हमारे जीवन का कितना ज़रूरी हिस्सा क्यों न हो जाएं, मानवीय संवेदनाओं का निर्माण कोई मशीन नही कर सकती और इसलिए उसकी ज़रूरत और उसका अभाव केवल इंसान ही पूरा कर सकता है | इसलिए  व्यक्ति की अस्मिता और उससे जुड़े हुए प्रश्न सदैव उसका पीछा करते हैं | कभी जीवन की विडम्बनाओं के रूप में तो कभी अप्रत्याशित नकारात्मक परिणामों के रूप में | तभी तो इस एकांकी में यह पुरुष जिसे अपनी कंपनी में होने वाली हड़ताल से कोई फर्क नही पड़ता और वह तीन साल तक कर्मचारियों को डिविडेंड न देने का फैसला करता है, वही अपनी पत्नी के असहमत रवैय्ये से भौचंका-सा रह जाता है |

परिगणित जीवन बनाम ‘स्ट्राइक’

स्त्री-पुरुष के संबंधों के बीच बदलते समीकरण जब इसी परिगणित मापदंडो के अनुसार चलते हैं तो उनकी जीवन-प्रदायिनी सरसता न जाने कहाँ खो जाती है इसका उन्हें भी पता नही चलता | उनके अन्तर्मन का कोई कोना इस स्थिति में रिक्तता को महसूस तो करता है पर  इसका अहसास दोनों को ही नहीं होता | एकांकी का दूसरा प्रमुख पात्र स्त्री है जो एक तलाकशुदा और दो बच्चों के पिता से विवाह करती है पर उसके वजूद को भी ठांव प्राप्त नही होता | एकांकी में उसकी स्थिति एक मूक पात्र की तरह से प्रस्तुत हुई है जिसकी मौजूदगी पति के लिए केवल अपनी फिलॉसफी को सुनने के लिए श्रोता के रूप में हुई है जिसके फीडबैक का कोई ख़ास महत्त्व नहीं है | जिससे केवल घर के नौकरों के बारे में प्रश्न पूछा जाता है कि वे छुट्टी पर क्यों चले गए और उनके न रहने से घर का काम-काज कौन करेगा? उसके उदास चेहरे का वास्तविक कारण समझने के बजाय पति द्वारा उसे उपदेशात्मक तरीके से ‘सरप्लस एनर्जी’ का सदुपयोग करने की सलाह वास्तव में स्त्री के अन्दर ऊब ही उत्पन्न करती है | नौकरों की अनुपस्थिति में उसका लखनऊ जा कर घूमना-फिरना घर की जिम्मेदारियों से स्वयं को मुक्त रखना नही कहा जा सकता | बल्कि वह अपने आप को खुश करने की कोशिश कर रही है जो उसे ‘टाइम’ पर चलने वाली ट्रेन में बैठकर ‘टाइम’ से घर आ कर पति के लिए ‘डिनर’ के लिए ‘स्टेशन से सालन’ ले जाते हुए हुए डिनर टेबल पर बैठकर उसे खाना खिलाने में नहीं मिल पा रहा है |

पति का हर बात पर यह कहना होता है कि उसे ज़िन्दगी जीने का तरीका मालूम है | पति-पत्नी को मशीन के दो पुरजो से ज्यादा वह कुछ नहीं समझता जिन्हें खराब हो जाने पर बदला जा सकता है | उसके लिए औरत को समझने की कोई ख़ास ज़रूरत नहीं होती और वह मशीन की वह ‘पुली’ होती है जो दूसरी ‘पुली’(पति) को नापने-जोखने का काम नहीं करती | इस तरह से दोनों ही सुखी जीवन बिताते हैं | एकांकी के अंत में रिश्ते की मशीनी प्रक्रिया का अंजाम भुवनेश्वर प्रसाद ने सिर्फ एक पंक्ति के उस ख़त से किया है जो स्त्री के द्वारा अपने पति को चपरासी के हाथों भेजा गया है | एकांकी के शुरू से ही स्त्री केवल एक-आध वाक्य ही बोल रही है और उस ख़त में भी यही लिखा होता है कि वह कल ही घर आएगी |

 

डॉ.अनुपमा श्रीवास्तव

असिस्टेंट प्रोफेसर 

जीसस एंड मेरी कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय

9811585089

Dranupamasrivastava.jmc@gmail.com

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  • | 14 March 2021

    nice and mind-boggling